पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२४७

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••••••••••••••• विद्यापति । २३३ । जन जागल कि करव केली । तनु पइते हमे आकुल भेली ॥६॥ वेक चतुरपने भेलाहू अयानी । लाभ के लोभे मूलहु भेल हानीं ॥८॥ इ विद्यापति निमति दोसे । अवसर काल उचित नहि रोसे ॥१०॥ सखी । ४५६ झॉखि झॉखि न खिन कर तनु । भमर न रह मालति बिनु ॥२॥ ताहि तोहि रिति बाढ़ति पुनु । दुटलि वचन बोलह जनु ॥४॥ एहे राधे धैरज धरु । बालसु अौताह उछाह करु ॥६॥ पिशुन चचने वाढत रौस । वारए न पारिअ दिवस दोस ॥८॥ सुजन वचन टुट न नेहा । हाये न मैट पखालक रेहा ॥१०॥ राधा। चरण नखर मनि रञ्जन छींद । धरणी लौटायल गोकुल चॉद ॥२॥ ढुरकि ढुरकि पडू लोचन नोर । कत रूपे मिनति कयल पहु मेरि ।।४।। लागल कुदिन कयल हमे मान । अवहु न निकस्य कठिन परान ॥६॥ रोख तिमिर एत वैरि कियजानी रतनक भै गैल गैरिक भान ॥८॥ नारि जनमें हम न करल भागि । मरण शरण भेल मानक लागि ॥१०॥ विद्यापति कह सुन धनि राइ । रोयसि काहे कह भल समुझाइ ॥१२॥