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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२५१

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विद्यापति ।। =

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= == हि पति भल भेल ओतहि ओहो गेल कि फल विकल कए देहे । करिअ जतन पए जञो पुनु जोलि हो टूटल सरस सिनेहे ॥४॥ उनु काट्स हे जतने दुहु परिहर के ॥५॥ देन दस जौवन तेहि अनाएत मन तहु पुछु परकारे । तुअ परसाद विखाद नयन जल काजरे मोर उपकारे ।।७।। ते तो करवि मसि मअन पास वैसि लिखि लिखि देखवासि तोही । तार हार घनसार सार रे सेओलव सन्ताओत मोही ॥६॥ कामिनि केलि भान थिक माधव आओ कुमुदिनि सो चॉदे । दुरहु दुरहु तोहें पहु तो बुझह दहु दरसने कत आनन्दे ॥११॥ भनइ विद्यापति अरे वर जौवति मेदिनि मदन समाने । लखिमा देविपति रूपनराएन सुखमा देवि रमाने ॥१३॥ सखी । ४६८ राधामाधव रतनहि मन्दिरे निवसय शयनक सुखे । रसे से दारुन दन्द उपजल कान्त चलल तहि रोखे ॥२॥ नागर अञ्चल करे धरि नागरि हसि मिनति करु आधा । नागर हृदय पॉच शर होनल उरज दरशि मन वाधा ॥४॥ देख सखि झुठक मान । कारण किछुइ बुझइ न पारिय तब काहे रोखल कान ॥६॥ रोख समापि पुनु रहसि पसारल ताहि मध पॉच वान । अवसर जानि मानवति राधा विद्यापति कवि भान ॥८॥