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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२६७

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विद्यापति ।।

राधा । ४६७ जातकि केतकि कुन्द सहार । गरुअ ताहेरि पुन जाहि निहार ॥ २ ॥ सब फुल परिमल सब मकरन्द । अनुभवे विन न बुझिअ भल मन्द ॥ ४ ॥ तुअ सखि वचन अमिञ अवगाह। भमर चैआजे बुझग्रोव नाह ।। ६ ।। एतवा विनति अनाइति मोरि । निरस कुसुम नहि रहिअ अगोरि ॥ ८ ॥ वैभव गेले भलाहु मंदि भास । अपन पराभव पर उपहास ।।१०।। राधा । ४६८ दुइ मन मेलि सिनेह अङ्कुर दोपत तेपत भैला । साखा पल्लव फुले वेपल सौरभ दह दिस गेला ॥२॥ सखि हे आवे कि आओत कन्हाई । पेम मनोरथ हठे विघटओलहि कपटहि के पतियाइ ॥४॥ जानि सुपहु तोहे आनि मेराओल सोना गाथलि मोती । कैतव कञ्चन अन्ध विधाता छायाहु छाडलि सोती ॥६॥ राधा । ४६६ पहुक वचन छल पाथर रेख । हृदय धेएल नहि होएत विशेख ॥ २ ॥ नागर भमर दुह एक रीति । रस लए निरसि करए फिरि तींत ॥ ४ ॥ ओ पहिलहि वोल तोहेहि परान । पथ परिचय नहि राख निदान ॥ ६ ॥