पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२६६

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२५० विद्यापति । - मधुर वचन कहि कानुके बुझाइ । एहि कर दोख रोख अवगाइ ॥१२॥ तुएँ वरचतुरी हम किय जान । भनइ विद्यापति इह रस भान ॥१४॥ राधा । ४६५ | दरजन वचन न लह सब ठाम । बुझए न रहए जावे परिनामे ॥ २ ॥ ततहि दूर जा जतहि विचार । दीप देले घर न रह अंधार ॥ ४ ॥ हमरि विनति सखि कवि मुरारि । सुपह रोस कर दोस विचारि ॥ ६ ॥ से नागरि तोहे गुनक निधान । अलपहि माने बहुत अभिमान ॥८॥ कके विसरलहि हे पुरुव परिपाटि । लाडलि लतिका की फल काटि ॥१०॥ भनइ विद्यापति एहू रस जान । राए सिवसिंह लखिमा देविरमान ॥१२॥ राधा । ४६ ६ मधु रजनी सङ्गहि खेपवि कत कति छलि आस । विहि विपरिते सवे विघटल चहु रिपु जन होस ॥२॥ हे सुन्दर कन्त न चुक विलेख । पिशुन वचने उचित विसरि अपहो निरपेख ॥४॥ कत गुरुजन कत परिजन कत पहरी जाग ।। एतहु साहसे मने चलि अहलिहू एहन छल अनुराग ॥६॥