सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । २५५ ।

ठूती । ५०६ करतल कमल नयन ढर नीर । न घेतए सभरन कुन्तल चीर ॥ ३ ॥ तुझ पथ हेरि हेरि चित नहि थीर । सुमरि पुरुव नेहा दुगध सरीर ॥ ४ ॥ कतै परि माधव साधव मान । विरहि जुवति मग दरसन दान ॥ ६ ॥ जल मधे कभल गगन मधे सूर। ऑतर चान कुमुद कत दूर ॥८॥ गगन गरज मेघा सिखर मयूर । कत जन जानसि नेह कत दूर ॥१०॥ भनइ विद्यापति विपरित मान । राधा वचन लजाएत काढू ॥१२॥ ठूती । ५०७ धन जऊवन रस रङ्गे। दिन दस देखिअ तलित तरङ्गे ॥ २ ॥ सुघटेो विहि विघटावे । वाङ्क विधाता की न करावे ॥ ४ ॥ माधव इ तुम भलि नहि रीती। हठे न करिश्र दुर पुरुव पिरीती ॥ ६ ॥ सचकित हेरए आसा । सुमरि समागम सुपहुक पासा ॥ ८॥ नयन तेजए जलधारा । न चैतए चीर न परिहए हारा ॥१०॥ लख जोजन वस चन्दा । तइयो कुमुदिनि करए अनन्दा ॥१२॥ जकरा जा सञी रीति । दुरहुक दुर गेले दो गुन पिरीती ॥१४॥ विद्यापति कवि गाहे । वोलल बोल सुपहु निरवाहे ॥१६॥ रूप नराएन जाने । राए सिवसिंह लखिमा देवि रमाने ॥१८॥