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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२७५

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विद्यापति। ३५७ दूती । ५१० कतए गुजा कतए फल । कतए गुजा रतन तुल ॥ २ ॥ जे पुनु जानए भरम साच । रतन तेज न किनए काच ॥ ४ ॥ अरे रे सुन्दर उतर देह । कञोन कझोन गुन परखि नेह ॥ ६ ॥ अनेके दिवसे कएल मान । मधु छाड़ि आन न मागए दान ॥ ८ ॥ ऐसन मुगुध थीक मुरारि । गवउ भखए अमिञ छारि ॥१०॥ दूती । ५११ तुअ विसवासे कुसुमे भरु सेज । वसन्तक रजनी चॉदक तेज ॥ २ ॥ मन उतकण्ठित कतए न धाव । दह दिस सुन नयन भमि आव ॥ ४ ॥ हरि हरि हरि तुय दरसन लागि । नागरि रयनि गमाउलि जागि ॥ ६ ॥ सुपुरुस भए नहि करिअए रोस । वड़ भए कपटी इ चड़ दोष ॥ ८॥ भनइ विद्यापति गरुवि बोल । जे कुल राखए सेहे अमोल ॥१०॥ सखी। रसिकक सरवस नागरि वानि । भल परिहर न आदर आनि ।। २ ।। हृदयक कपटि वचने पियार । अपने रसे उकट कुसियार ॥ ४ ॥ वे कि चोलव सखि विसरल देग्रो। तुत्र रूपे लुबुध भही नहिं के ॥ ६ ॥ 33