पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२७६

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२५६ विद्यापति । • पएर पखाल रोषे नहि खाए । अन्धरा हाथ भेटल हर जाए ॥ ८॥ तने जे कलामति । अविवेक । न पिच सरोज अमिय रस भेक ॥१०॥ अकुलिन सञो जदि कए सदभाव । तत कए कतए चतुरपन झाव ॥१३॥ तोहरा हृदय न रहले खागि । कतए सुनल अछ जुडि ही आगी ॥१४॥ भनइ विद्यापति सह कृत साति । से नहि विचल जकरि जे जाति ॥१६॥


-- दूती ।

५१३ जसु मुख सेवक पुनिमक चन्दा । नअनक नेञोछन नव अरविन्दा ॥ २ ॥ अधर निमाल मधुरि फुल थोकी । तोंहें कके पाउलि अमिञ सलाका ॥ ४ ॥ आइलि कलावति तय रति साधे । तोहे परिहरलि कोन अपराधे ॥ ६ ॥ भञहक अनुचर मनमथ चापे । पिक पञ्चम परिपन्थि अलापे ॥ २ ॥ जा सो विहुसि दरस अनुरागे । अनलझॉपते कएल पागे ॥१०॥ अनुभवि भङ्गर भाव तोहारे । संसय न तेजए हृदय हमार ॥१॥ की से अनागरि कि तोहें अकामी । सहज तोहर वा परजन्तगमा ॥ भनइ विद्यापति न बोल सन्देही । सुपुरुस वचन पसानक रहा ॥ नृप सिवसिंह देव एह रस जाने । सौभागे आगरि लखिमा देइ रमान । दूती ।। ५१४ प्रयमहि कत जतन उपजोल हे ते ग्रानले पर राम । वाललह मान आन परिनत भेल अवे परजन्तक ठामा ॥२॥