पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२८०

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१६ २ विद्यापति । देखि भवन भिति लिखल भुजगपति जसु मने परम तरासे । से सुवदनि करे झपइते फनिमनि विहुसि अाइलि तुअ पासे ॥६॥ निअ पहु परिहरि संतरि विखम नरि अॅगिरि महाकुल गारी । तुअ अनुराग मधुर मदे मातलि किछु न गुनल वर नारी ॥८॥ इ रस रसिक विनोदक विन्दक सुकवि विद्यापति गावे ।। काम पेम दुहु एक मत भए रह कखने की न करावे ॥१०॥ दूती । ५२२ निसि निसिअर भम भीम भुअङ्गम गगन गरज घन मेह । दुतर जनुन नरि से आइलि वाहु तरि एतवा तोहर नेह ॥२॥ हेरि हल हसि समुह उगो ससि वरिसो अमिथक धार ॥३॥ कत नहि दुरजन कत जामिक जन परिपन्यय अनुरागे । किछु न काहुक डर गुनल जुवति वर एहि परकियो अभागे ॥५॥ दूती । ५२३ अगर उगारि गरि मृगमद रस कय अनुलेपन देह । चललि तिमिर मिलि निमिखें अलख भैलि । काचक सनि मसि रेह ॥२॥