पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२७९

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विद्यापति । २६१ | सुन सुन माधव वचन हमार । पाउलि निधि परिहरए गमार ॥ ६ ॥ तुअ गुन गन कहि कत अनुरोधि । निअ पिय लगसौं अनलि बोधि ॥ ८ ॥ एहन सिथिल बुझल तुअ नेह । आवे अनितहु मोहि होइति सन्देह ॥१०॥ हैं वेरि जदि परिहरवह आनि । आनहु तेजवि अभिसारक वानि ॥१२॥ भनइ विद्यापति सुनह मुरारि । धनि परिजिअ दोस विचारि ॥१४॥ दूती । ५२० माधव सुमुखि मनोरथ पुर । तुअ गुने जुवुधि आइलि एति दूर ॥ २ ॥ जे घर वाहर होइते फेदाए । साहस तकर कहए नहि जाए ॥ ४ ॥ पथ पीछर एक रयनि अन्धार । कुच जुग कलसे जमुना भैलि पार ॥ ६ ॥ वारिद चरिस सकल महिं पूल । सहसह चउदिस विसधर वूल ॥ ६ ॥ नगुनलि एहनि भयाउनि राति। जीवहु चाहि अधिक की साति ॥१०॥ भनइ विद्यापति दुहु मन बोध । कमल न विकत भमर अनुरोध ॥१२॥ दूती । | ५२१ माधव करिअ सुमुखि समधाने ।। तुअ अभिसार कएल जत सुन्दरि कामिनि करए के आने ॥ ३ ॥ वरिस पयोधर धरनि वारि भर रयनि महा भय भीमा ।। तइओ चललि धनि तुअ गुन भने गुनि तसु साहस नहि सीमा ।।४।।