पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३०८

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विद्यापति ।

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३८६ विद्यापति) राधा । ५७३' पहिलाहि सरस पयोधर कुम्भ । आरति कत न करए परिरम्भ ।। २ ।। अधर सुधारस दरसए लोभ । राङ्कक हाथ रतन नहि सोभ ।। ४ ।। सजनि कि कहब कहइते लाज । काहुक आइति पललुहे आज || ६ ॥ नीवि ससरि कतए देहू गेलि । अपनाहु अङ्ग अनाइति भेलि ॥ ८ ॥ करतल तले धरित्र कुच गोए । पडले तलित झापि नाह होए ॥१०॥ भनइ विद्यापति न कर सन्देह । मधुतह सुन्दरि मधुर सिनेह ॥१२॥ सखी । ५७३ सघने आलिङ्गन करु कत छन्द । जनि घृन दामिनि लागल दृन्दै ॥२ बदने बदन धरु मनमथ फन्द । किये एक ठामै बान्धल युगल चन्द ॥ घेरि रहल कच तिमिर विथोर । जनि रण जीत उदय परचार ।। ६ रागी अधर उरज अति • चण्ड । लागल ए वदन खण्डन दण्ड । मदन महोदधि उछल हिलोर । जनि निधि युगल करत झकझोर ॥ श्रम जले पूरित दुहु भेल एक । जनि तिमङ्गल जय अभिसक ॥ कुच पर विदगध पानि विराज । कनक कलसे जनि किशलय साज । सब कानन भरे परिमल भान । अलिकुल दुह, जन गुनगान ॐ जन गुनगान ॥१६॥