पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३१९

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विद्यापतिं । १६७

सखी । ५६.३ रयनि समापलि रहलिछ थोर । रमनि रमन रति रस नहि ओर ।। २ ।। नागर निरखि सुमुखि मुख चुम्ब | जाने सरसिज मधु पिच विधुविम्ब ॥ ४ ॥ दृढ़ परिरम्भने पुलकित देह । जनि अँकुरल पुन दुहुक सनेह ॥ ६ ॥ धनि रसमगनी रसिक रसधाम । जनि विलसइ अभिनव रतिकाम ॥ ८ ॥ * कि कब अपरूव हक समाज । दुयशो दुहुक कर अभिमत काञ्च ॥१०॥ विद्यापति कह रस नहि अन्त । गुनमति जुवती कलामय कन्त ॥१२॥ लखी । ५६.४ हरि उर पर सूतल वाला । कालिन्द पुजल जैसे चम्पक माला ।।२।। कानु धयल धनि भुज जुग माझ । कमले वेढल जैसे मधुकर साजे ॥४॥ रति रस अलसे दुहु तनु भोरि । भेद रहल किए साम किसरि ॥६॥ कह कांवशेखर दुहु गुन जानि । दुई दुहु मिलल दुहु मन मानि ॥८॥ राधा । ५६५ अरे वाले धर डारे जति । सखि गाढ आलिङ्गन तेहि भौति ॥ २ ॥ भने नन्दैि निन्दाधि करी काह। सगरि यनि कान्हु केलि चाह ॥ ४ ॥ लात रस विलसए भमर जान । तेहि भाति कर अधर पान }} ६ ॥