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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३५२

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विद्यापति ।। -* -*

रोधा। ६५७ प्रथमहि ऊपजल नव अनुरागे । मन कर प्रान धरिअ तसे आगे ॥ २ ॥ | आव दिने दिने भेल पेमें पुराने । भुगुतल कुसुम सुरभि कर आने ।। ४ । हरिके कहव साख हमरि विनतीं । विसरि न हलविए पुरुष पिरिती ॥ ६ | रभस समय पिआ जत कहि गेला । अधराहु आध सेहो दुर भेला ॥८॥ भनइ विद्यापति एहो रस भाने । राय सिवसिहँ लखिमा देइ रमाने ॥ १० ॥ ६५८ राधा । कहत कहत सखि बोलत बोलत ने हमारे पिया कोन देश रे ।। शरानी ३ तनु जर जर कुशल शुनइत सन्देश रे ॥ ३ ॥ हमरि नागर तयाय विभोर केहन नागरी मिलल रे । नागरी पाय नागर सुखी भेल हमार हिया दुय शेल रे ॥ ४ ॥ शङ्ख कर चूर वसन कर दूर तोड़ह गजमति हार रे । पिया यदि तेजल कि काज शिवारे यामुन सलिले सब डाररे ॥ ६ ॥ सीयार सिन्दुर पोछि कर दूर पिया विनु सबहि नैराश रे । भनइ विद्यापति सुनह युवति दुख भेल अवशेष रे ।