पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३६३

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विद्यापति । राधा । ६८० चान ऊगल हम देखल सजनी गे देखि विकल मन होय । एहन विधाता निरदय सजनी गे परदेश पहु रहु सोय ॥२॥ चीर चिकुर साज राखल सजनी गे जूही जोगाओल आज । वालभु विनु कइसे जीअव सजनी गे आव जीवन कोन काज ।।४।। अङ्गहि उपज अधर रस सजनी गे इहो थिक विरहक आधि । भनइ विद्यापति गाओल सजनी गे औखधो नई छुट वेधि ॥६॥ राधा । ६८१ जेहे लता लघु लाए कन्हाई । जल दए दए किछु गेलाहे वढाइ ॥ २ ॥ से आवे भरे कुसुमित भेल आइ । परिमल पसरल दह दिस जाइ ॥ ४ ॥ पिआ के कव पिक सुललित बानी । रभसक अवसर दुरजन जानि ॥ ६ ॥ हठे अवधारि विलम्ब नहि सहइ । फुलला फुल मधु वसि नहि रहइ ।।८।। राधा ।। ६८३ कत कत सखि मोहे विरहे भै गेल तीता । गरल भखि मोने मरव रचि देहे मोर चीता ॥२॥