पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३७१

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विद्यापति । । ३५७ wwwwwwwwwwwwwwvvvvvvvw• ••• ••• •••••••••••••• फव कलावति । कन्त 'हमार । वारिस परदेश वसए गमार ॥१०॥ सव परदेसि -एके' सौभाव । गए परदेस पलटि नहि आव ॥१३॥ मार मनोज मरम सर : आहि । वरसो वरिअ धसन्तहु चाहि ॥१४॥ ७१४ राधा । हम धनि तापिनी मन्दिरे एकाकिनी दोसर जन नहि सङ्ग । वरिषा परवेश पिया गेल दूरदेश रिपु भेल मत्त अनङ्ग ॥२॥ सजनि आजु शमन दिन होय । नवे नवे जलधर चौदिसे झॉपल हर जीउ निकसय भोर ॥॥ घन घन गराजत सुनि जिउ चमक्ति काम्पत अन्तर मोर।.. पपिहा, दारुण पिउ पिउ सुमरण भ्रमि भ्रमि देइ तसु कोर ॥६॥ वरिखय पुन पुन गिदहन जनि जानले जीवन अन्त । विद्यापति कह. सुन रमणीवर मिलव पहु गुणवन्त ॥६॥ .. ७१५ राधा । साख हे हमर दुखक नहि ओर रे । , ई भर वादर' माह भादव सून मन्दिर मोर रे ॥२॥ । ', ' ।