पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३७३

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विद्यापति । ३५६ हरि हरि के इह दैव दुराशा । सिन्धु निकटे जदि कण्ठ शुखायव के दूर करव पियासी ॥४॥ चन्दन तरु जव सौरभ छोड़व शशधर वारखव आगि । चिन्तामाण जब निज गुण छोडव कि मौर करम अभागि ॥६॥ श्रावण माह घन विन्दु न वरिखव सुरतरु वाफ कि छान्दे । गिरिधर सेवि ठाम महि पायव विद्यापति रहु धान्धे ॥८॥ राधा । ७१६ काहु दिस काहल कोकिल रावे । मातल भधुकर हदिस धावे ॥ २ ॥ केओ भहि बुझए निधन आने । भमि भमि लुटए मानिनि जनमाने ॥ ४ ॥ कि कहिवो अगे सखि अपन विभाला । विनु कारने मनमथे करु धाला ॥ ६ ॥ किसलय सेभित नव नव चुते । धजका धरल देखिअ बहुते ॥ ८ ॥ कसि कसि गन कुसुम सर लेइ । प्रान न हरए विरह पए देइ ॥ १० ॥ दाहिन पवन कोने धरु नामे । अनुभव पाए सेहो भेल वामे ॥ १२ ॥ मन्द समीर विरहि वध लागि । विकच पराग पजारए आगि ॥ १४ ।। राधा । ७१६ वसन्त रयनि रङ्गे पलटि खेप व सङ्के | परम रभसे पिअ गेल कहि ।।