पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३७९

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विद्यापति । जावे न ओङ्ग तरुनत भेल । तावे से कन्त दिगन्तर गेल ॥ १० ॥ परहित अहित सदा विहि वाम । दुइ अभिमत न रहए एक ठाम ॥ १३ ॥ धन कुल धरम मनोभव चौर । केओन वुझाव मुगुध पिआमोर ॥ १४ ॥ विद्यापति कवि एहो रस भान । राजा सिवसिंह लखिमा देवि रमान॥ १६ ॥ राधी । ७३१ विपत अपत तरु पाल रे पुन नव नव पति । विरहिनि नयन विहल विहि रे अविरल वरिसात ॥२॥ सखि अन्तर विरहानल रे नित वाढल जाय ।। विनु हरि लख उपचारहु रे हिय दुख नइ सिटोय ॥४॥ पिय पिय रटय पपिहरा रे हिय दुख उपजाव । कुदिना हित जन अनहित रे थिक जगत सोभाव ॥६॥ कवि विद्यापति गाग्रोल रे दुःख मेटत तौर । हरपत चित तोहि भेटत रे पिय नन्दकिशोर ॥८॥ राधा। ७३३ ललित लता जन तक मिलती । तन्हि पिअ कण्ठ गहए जुवती ।। २ ।। ग्राजु अपन मन थिर न रहे । मधुकर मदन समाद क्हे ॥ ४ ॥