पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

३६६ विद्यापति । अङ्कुर तपन तापे यदि जाव कि करवे वारिद मेहे । इह नव यौवन विरहे गमाव कि करव से पिया नेहे ॥८॥ भनइ विद्यापति सुन वरयुवति अव नहि होत निराश । से ब्रजनन्दन हृदय आनन्दन झटिते मिलव तुय पास ।।१०।। राधा । जखने माधव पयाने करल उगय से सब बोल । दुहुक हृदय करुनी वाढल नयन गरय नोर ॥२॥ करे कर धरि सिर परसल निअर अायोल कान । अवधि कइए सपथ करल से सव भइ गेल अनि ॥४॥ सखि हे अबहु न आयल नाह ।। दोसर बसन्त अगुसरे भेल के सह मदनक दाह ।।६।। पथ निहारइत चूत मञ्जुल फुटल माधवि लता । नविन कोकिल पञ्चम गावए गुजर भमर जता ॥८॥ अवधि पूरल अबहु न आयल नागर पड़ि गेल भोर । कौन गुनवति कि गुने बॉधल मुगुध माधव मोर ॥१०॥ 47