पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३९१

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विद्यापति । ३७५ पुणमिक इन्दु निन्दि मुख सुन्दर से भेल अब शशि-रेहा । कलेवर कमलकॉति जिनि कामिनी दिने दिने खाण भेल देहा ।।४।। उपवन हेरि मुरछि पडु भूतले चिन्तित सखीगण सङ्ग ।। पद अड्गुलि देइ क्षिति पर लिखइ पण कपोल अवलम्ब ।।६।। ऐसन हेरि तुरिते हम आयल अब तुहुँ करह विचार । विद्यापति कह निकरुण माधव बुझल कुलिशक सार ॥८॥ दूती । ७४७ कि कह्व माधव कि कहव काजे । पखल कलावत प्रिय सखी माझे ॥२॥ आगे सोइ अछल कञ्चन पुतला । त्रिभुवने अनुपम रूपे गुणे कुशला ॥ ४ ॥ आवे भेल विपरित झामर देहा ( दिवसे मलिन जनि चॉदक रेहा ॥ ६ ॥ वामकरे कपोल लोलित केश भारा । कर नखे लिखु महि ऑखि जलधारा ॥ ८॥ विद्यापति भने सुन वरकान्हे । राजा शिवसिंह इथे परमाने ॥ १० ॥ दूती। ७४८ माधव कठिन हृदय परवासी । तुझ पेयसि मौजे देखील वराकिनि अबहु पलट घर जासी ॥२॥