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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४०६

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- -- - - - ३८६ विद्यापति । कतहु कुसुम कतहु सौरभ कतहु भर रावे ।। इन्दिअ दारुन जतहि हटिअ ततहि ततहि धाचे ॥८॥ मदन सरे जे तनु पसाहल ऋतुपति के रोसे । अपन वालभ जो होश आएत तो दिअ परक दोसे ॥१०॥ भन विद्यापति सुन तोळे जउवति रहहि सङ्ग सपूने ।। कन्त दिगन्तर जाहि न सुमर की तसु रूप कि गुने ॥१२॥



दूती । ७६७ खने सन्ताप सीत जर जाड़ । की उपचरव सन्देह न छाड़ ॥ २ ॥ उचित भूषन मानए भार । देह रहल अछ सोभासार ॥ ४ ॥ ए हरि तोरित करिअ अवधारि । जे किछु समदलि सुन्दर नारि ॥ ६ ॥ वेदन मानए चान्दन आगि । वाट हेरए तुअ अहनिसि जागि ॥ ८॥ जीनल वदन इन्दु ते ताव । की दुहु होइति एहि परथाव ॥१०॥ नव आखर गद गद सर रोए । जे । किछु सुन्दर समदल गए ॥१२॥ कहए ने पारिअ तसे अवसाद । दोसरा पद अछ सकल समाद ॥१४॥ भनइ विद्यापति एहो रस भानः। अबुझ न बुझए 'बुझए मतिमान ॥१६॥ राजा सिवसिंह परतख दे । लखिमा देइ पति पुनमत सेओ ॥१८॥