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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४२७

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विद्यापति, ४०५ | मालति पाल रसिक भमरा । भेल वियोग करम दोस मेरा || ६ ॥ निधने पाल धन अनेक जतने | ऑचर सौ खसि पललरतने ॥ १० ॥ राधा । ७०० सुतलि छलहुँ हम घरवा रे गरवा मीति हार | राति जखनि भिनसरवा रे पित्र आएल हमार ॥२॥ कर कौशल कर कपड्त रे हरवा उर टार । कर पङ्कजें उर थपइत रे मुख चन्द निहार ।।४।। केहनि अभागलि वैरिनि २ भागलि मेरि निन्द । भल कए नहि देखि पाओल रे गुणमय गोविन्द ॥६॥ विद्यापति कवि गाग्रोल रे धनि मन धरु धीर । समय पाय तरुवर फड़ रे कतच सिचु नीर ॥८॥ राधा । ८०१ सपन देखल पिय मुख अरावन्द,। तेहि खन है सखि टुटलि निन्द ॥ २ ॥ आज सगुन फल सम्भव सॉच । वेरि वेरि वाम नयन मोर नाच ॥ ४ ॥