पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४३४

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४१६ विद्यापति ।

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राधा । ६१० जे दुखदायक से सुख देथु । अवला जन स आसिस लेथु ।। २ ।। पिय मोर आयल आन परोस । विरह व्यथा जनि गेल लख केसि ।। ४ ।। नहि छथि उगथु सहस दिजराज । कुदिवस हितकर अनहित काज ॥ ६ ॥ त्रिविध समीर वहथ् दिनराति । पञ्चम् गावथु कोकिल जाति ॥ ८॥ से गृह गृह नित उत्सव आज । विद्यापति भन मन नियज ॥१०॥ राधा । ८११ दारुण वसन्त जत दुख देल । हरिमुख हेरइते सब दूर गेल ।। २ ॥ जतहुँ अछल'मोर हृदयक साध । से सब पूरल हरि परसाद ॥ ४ ॥ कि कहव रे सखि आजुक अानन्द ओर । चिरदिने माधव मान्दरे मोर ॥ ६ ॥ रभस आलिङ्गने पुलकित भेल । अधरक पाने विरह दूर गेल ।। ८ ।। भनहि विद्यापति आर नह आधि । समुचित औखधे न रह वेयाधि ।।१०।। ।। , , राधा ।। । , । । । ८१२ . विह, मोर परसन भेल । हरि मोहि दरशन देल ।।१२ ॥ देखलि · वदन अभिराम । पूरल सकल मन काम ।। ४ ।। |