पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४४८

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विद्यापति । -*

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माधव बहुत मिनति कर तोय । दए तुलसी तिल देह साँपल दृया जनु छोड़वि मोय ॥२॥ गणइते दोष गुणलेश न पाओवि जव तुहुँ करवि विचार । तुएँ जगन्नाथ जगते कहासि जग वाहिर नह मोक्रे छार ॥४॥ किए मानुप पशु पाखी भए जनमिय अथवा कीट पतङ्ग । करम विपाके गतागत पुन पुन मति रहु परसङ्ग ॥६॥ भनई विद्यापति अतिशय कातर तरइते इह भवसिन्धु । तुय पदपल्लव करि अवलम्बन तिल एक देह दीनबन्धु ॥८॥ ८३६ तोतल सैकत वारिविन्दु सम सुतमितरमणी समाजे । तोहे विसरि मन ताहे समपल अब मुझ व कोन काजे ॥२॥ माधव हम परिणाम निराशा । । तुहुँ जगतारण दीन दयामय अतये तोहारि विशोयासी ॥४॥ । अध जनम हम निदे गमाओल जरा शिशु कतदिन गेला । निधुवने रमणी रसरङ्गे मातल तोहे भजव केन वेला ॥६!" कत चतुरानन मर मर जाओत न तुया आदि अवसाना । तोहे जनम पुन तौहे समाश्रोत सागर लहरि समाना ॥८॥