पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४४७

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विद्यापति । ४२३। वार वार चरणारविन्द गहि सदा रहव वनि दसिया । कि छलहुँ कि होयव से के जाने वृथा होयत कुल हसिया ॥४॥ अनुभव ऐसन मदन भुजङ्गम हृदय हमार गेल डसिया ।। नन्दनन्दन तुय शरण न त्यागव वनु जनु अहा दुरजासया ॥६॥ विद्यापति कह सुनु वनितामणि तोर मुखे जीतल शशिया । धन्य धन्य तोर भाग गोयलिनि हरि भजु हृदय हुलसिया ॥८॥


- प्रार्थना । ८३७ जतने ज्ञतेक धन पापे वटोरल मिलि मिलि परिजन खाय । मरणक बेरि हेरि कोइ न पुछत करम भड़े चलि जाय ॥२॥ ए हरि वन्दो तुय पद नाय । तुय पद परिहर पाप पयोनिधि पार होयव कोन उपाय ॥४॥ जावत जनम हम तुय पद न सेवल युवति मति मञ मेलि । अमृत तेजि किये हलाहल पीयल सम्पदे विपदहि भेति ॥६॥ भनइ विद्यापति नेह मने गणि कहले कि वाढव काजे । सॉझक वेरि सेव कोन मागइ हेरइते तुया पाय लाजे ॥८॥