पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४५९

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विद्यापति।

भन विद्यापति सामिक निन्दा न कर गैरी माता ।

तोहर सामि जगत इसर भुगुति मुकुति दाता ॥१०॥

११

शाजे अकामिक आएल भेखधारी । भीखि भृगुति लए चलल कुमारी ॥ २ ॥ भिखया ने लेइ चढावए रिसीं । वन निहारए विहुसि हसी ॥ ४ ॥ । एहि ठाम सखि सङ्गे निकहि अली । ओहि जोगिया देखि मुरुछ पड़ली ।। ६ ।। | दुर कर गुनपन अरे भैपधारी । को डिठि अओलए राजकुमारी ॥ ८ ॥ | केयो बोल देखए देहे जनु काहू । के बोल ओझा अनि चाहू ॥१०॥ केो चोल जोगियाहि देहे हुआनी । हुनिकि अभए वरु जिवओ भवानी ॥१३॥ भनइ विद्यापति अभिमत वा । चन्दल विपति वैजल देवा ॥१४॥

१२

जोगिया मन भाबड़ है मनाइन ।

भाग्नवत्तद्दा चटि विभूति लगाए है । मन मौर हरलनि डामरु बजाए हे ॥३॥ सुन्दर गात अजर पति से चाहे । चित नह छथि जानयि किछुटाना है निनग्न एक अगनिकवाला है। भाल तिलक चान'फटिकक मार ये जानथि किछुटौना है ।।५।। स्विर नायिका मेरि पति हो । विद्यापति कह में nाटकक माला है ॥७॥ । इर गति है