पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४७१

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विद्यापति । ४३६ तुरय छाडि ' चढ़ बसह पीठि । लाजे मरिअ जो हेरिअ दीठि ॥ ६ ॥ | भनइ विद्यापति सुनह गरि । हर नहि उमता तहहि भेरि ॥ ८॥ २६ पञ्च चदन हर भसमे धवला । तीनि नयन एक वरए अनला ॥ २ ॥ दुखे बोलए भवानी । जगत भिखारि हम मिलल सामी ॥ ४ ॥ विपधर भूपन दिग परिधाना ! विनु विते इसर नाम उगना ॥ ६ ॥ भनइ विद्यापति सुनह भवानी । हर नहि निधन जगत सामी ॥ ८॥ शिव है सेवए अयलॉहु सुख लागी । विषम नयन अनुखने वर आगी ॥ २ ॥ वसहा पड़ाएल आगे । पैसि पताल नुकाएल नागे ॥ ४ ॥ ससि उठि चलल अकासे । गोरि चललि गिरिराजक पासे ॥ ६ ॥ उचित वोलए नहिं जाइ । उमत वुझोव कोने उपाइ ॥ ८॥ भनइ विद्यापति दासे । गौरी शङ्कर पुरावथु असे ॥१०॥ चेरि बेरि अरे शिव मोजे तोके बोलनो किरिपि कारय मन लाइ । बिनु समरे हर भिखिए पए मागिय गुन गौरव दूर जाई ॥२॥