पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४७२

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3३८, विद्यापति ।। जे मोर कहता उगना उदेश । ताहि देवू ओ कर कडूगंना वेश ॥ ६ ॥ नन्दन वन मे भेटल महेश । गौरि मन हरषित मेटल कलेश ॥ ८ ॥ विद्यापति भन उगना से काज । नहि हितकर मोर त्रिभुवन राज ॥१०॥ २६ बीसल भाँग रहल एहि गती । कथि लँइ मनाएव उमता जती ॥ २ ॥ आन दिन निकहि छलाह मोर पती । आइ बढ़ाए देल कोन उदुमती ॥ ४ ॥ आनक नीक अपन हो छती । ठामे एक ठेसता पड़त विपती ॥ ६ ॥ भनहि विद्यापति सुन हे सती । ई थिक वाउर त्रिभुवनपती ॥ ८॥ २७ मोर , निर्धन , भोरा । अपने भिखारि विलह नहि थोरा ॥ २ ॥ फडि कचौटा हर इसर बोलावे । मगत जना सबै कोटि कोटि पावे ॥ ४ ॥ सबै बोल हुनि हर जगत किसान । बूढ वद् कुट कॉख वोकाने ॥ ६ ॥ भनइ विद्यापति पुछु हुनि दहू । की लए पोसव दृहुं परिजन पुत बहू ॥ ८ ॥ २८ । नेउमतओला हे तैलोक नाथ । निते उगारिय निते भसम साथ ॥ २ ॥ पटुम्वर धर उतारि । बाघछल निते पहिर झारि ॥ ४ ॥