पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४७७

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विद्यापति ।। ४४३ ।

देख लोक हे अइसनि जोए । मनुस उपरि कइसे माउग होए ॥१२॥ अपना पुत के न जानए काज । निठुर भइ कत मोहु सञोवाज ॥१४॥ भनइ विद्यापति देवह्नि दे । करिअ करम जइसे हसन के ॥१६॥ गणपति देखले हो काज । राए सिवसिंह एकछत्र राज ॥१८॥ पावती । ३६. आने बोलव कुल अथिकह हीन । तेहि कुमार अछल एत दीन ॥ २ ॥ तोहर हमर सिव वएस भेल आए । विहु न चिन्तह विग्रह उपाए ॥ ४ ॥ भल सिव भल सिव भल बेवहार । चिता चिन्ता नहि बेटा कुमार ॥ ६ ॥ हसि हर वोलथि सुनह भवानी । जनितहु कके देवि होह अगेयानी ॥ ८ ॥ | देस वुलिए बुलि खोजो कुमारी । हुहिक सरिस मोहि न मिलए नारी ॥१०॥ काातक । | एत सुनि कातिक मने भेल लाज । हम न हे माए विग्राहक काज ॥१२॥ नहि विहिब रहव कुमार । न कर कन्दल अमा सपथ हमार ॥१४॥ भनइ विद्यापति एहे भल भेल । कातिक वचने कन्दुल दुर गेल ॥१६॥ | हे हर जगत चुलिए दिअ अभय वरे । जग जनि जीवथु महथ महेसरे ॥१८॥