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'४५० ' विद्यापर्ति। विक्रम । '. कीर कुटिल मुख न बुझ वेदने दुख बोल वचन परमाने । ' विरह वेदन दह कोक करुण सह सरुप कहत के आने ॥२॥ हरि हरि मोरि उरवस की भैली । जोहइते धावओ कतहु न पावओ मुरछि खसओं कत बेली ।।४।। गिरि नरि तरुअर कोकिल भ्रमर वर हरिन हाथि हिमधामा । सभक पर पय सवें भेल निरदय के ओ न कहे तसु नाम ।।६।। मधुर मधुर धुनि नेपुर रवसुनि भमों तरङ्गिनि तीरे । मोरे करमे कलहंस नाद भेल नयन विमुञ्चों नीरे ॥८॥ हरि हरि कोन पर मिलति से परसनि कवि विद्यापति भने । लखिमा देवपति सकल सुजन गति नृप शिवसिंह रस जाने ॥१०॥ कुन्द परिमल सङ्ग सुन्दर नव्य पल्लव पूजिते । कामदैवत कर्म निर्भिमत कोकिलाकलकूजिते ॥२॥ देहि नवीन देव दैव समीर विभ्रति बोधति विभ्रमे । माधवी लतया सम परिनृत्यतीव वनमे ॥४॥ माधव मास मधु समये राजति राधा रभसमये ॥६॥