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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४९१

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विद्यापति । '४५५ विजावई कविवर एहु गावए मानव मन आनन्द भएओ। सिंहासन सिवसिंह वइठो उच्छवै वैरस विसरि गएओ ॥१४॥ शिवसिंह का युद्ध । १० दूर दुग्गम दमसि भजे ओ गाड़ गड़ गूठी गजे ओ पातिसाह ससीम सीमा समर दरसेओ रे ॥१॥ ढोल तरल निशान सदहि भरि काहल सङ्घ नहि | तीनि भुअन निकेत केतक सन भरिओ रे ॥२॥ कोहे नारे पयान चाल ओ वायु मध्ये राय गरु ओ तरणि ते तुलाधार परताप गहिओ रे ॥३॥ मेरु कनक सुमेरु कम्पिय धरणि पूरिय गगन झम्पिय | हात तुरय पदाति पयभर कमन सहिओ रे ॥४॥ तरल तर तरवार रङ्गे विजुदाम छटा तरङ्गे। | धौर धन सघात वारिस काल दरसेओ रे ॥५॥ तुरय कोटि चाप चूरिय चार दिस चौ विदिस पूरिय : विषम सार असार धारा धोरनी भरिओ ॥६॥ अन्ध कुअ कृवन्ध लाइ फेरवि फफ्फरिस गाइ रुहिर मत्त परेत भूत वैताल बिछलिओ ॥७॥