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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४९३

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विद्यापति । ४५७ - - सुरमुनिमनुज रचित पूजोचित कुसुम विचित्रित तीरे । त्रिनयन मौलि जटाचय चुम्बन भूति भूपित सित नीरे ॥६॥ हरिपद कमलगलित मधुसोदर पुण्य पुनित सुर लोके । प्रविलसदमरपुरीपद दान विधान विनाशित शोके ॥८॥ सजदयालुतया पातकि जन नरक विनाश निपुणे ।। रुद्रसिंह नरपति वरदायक विद्यापति कवि भणितगुणे ॥२०॥ तोहें जलधर सहजहि जलराज । हमे चातक जलविन्दुक काज ॥ ३ ॥ जल दए जलद जीव मोर राख । अवसर देले सहस हो लाख ॥ ४ ।। तनु देश चॉद राहु कर पान । कबहु कला नहि हो मलान ॥ ६ ॥ वैभव गेले रह ए विवेक । तइसन पुरुख लाख थिक एक ॥ ६ ॥ भनइ विद्यापति दूती से | दुइ मन मेल कराव एजें ॥१०॥