पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

४५८ विद्यापतिः । परकीया नायिका । । । अपर पयोधि मगन भेल सूर । नाख कुर्ने सङ्कुल बाट विदूर ॥ ३ ॥ नरि परिहरि नाविक धर गेल | पथिक गमन पथ संसय भेल ।। ४ ।। अनत ए पथिक करि अ परवास । हमे धनि एकल कन्त नहिं पास ॥ ६ ॥ एके चिन्ता अओके मनमथ सोस । दसमि दसा मोहि कौनक देसि ॥ ६॥ अनि न जाग सखि जन मोर । अनुखन सगर नगर भम चोर ॥१०॥ तोहे तरुनत हमे बिरहिनि नारि । उचितहु वचन उपज कुल गारि ॥१२॥ बीमा वचन बाम पथ धाव । अपन मनोरय उकुति बुझाव ॥१४॥ भनइ विद्यापति नारिं सअनि । मल कए रखलक दुहु अनुमानि ॥१६॥ अपना मन्दिर वैसलि अछलहु घर नहि दोसर केवा ।। तहिखने पहा पाहुन आएल वरिसए लागल देवा ॥२॥ के जान कि बोलति पिसुन परौसिनि वचनक भेल अवकासे ॥३॥ घर अन्धार निरन्तर धारा दिवसहि रजनी भाने । कोनक कहव हमे के पतिआएत जगत विदित पचवाने ॥५॥