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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४९५

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विद्यापति ।। - - = = = == = = ==

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- परतह परदेश परहिक आस विमुख न करिअ अवस दिग्र वास ॥३॥ एतहि जानिअ साख पियतम कथा ॥३॥ ", , भल मन्द ननन्द हे मने अनुमानि पथिकके न वोलिअ टुटल वानि ॥५॥ चरण पखालल असिन दान मधुरहि वचने करिअ समधान ॥७॥ ए सखि अनुचित एते दुर जाइ अव करिअ जत अधिक वडाइ ६॥ कमल मिलल दल मधूप चलल घर विहगे गहल निज ठामे । अरे रे पथिक जन थिर रे करिय, मन वड़ पॉतर दुर गामे ॥२॥ ननदि रुसिए रहु परदेश वस पह सासुहि न सुझ समाजे। निठुर समाज पुछार उदासिन । आओर कि कहव वेजे ॥४॥ चन्दन चारुचम्प घन चामर ।। अगर कुड्कुम धरवासे । । परिमल लोभे पथिक नित सञ्चर, तेइ नहि बोलय उदासे ॥६॥.. , ।