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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५२

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४४ विद्यापति ।।

ठूती । धनि धनि रमनि जनम धनि तोर । सच जन कान्हू कान्हू करि कुरए से तुय भावे विभोर ॥ २ ॥ चातक चाहि तियासल अम्बुद चकोर चाहि रहु चन्दा । तरु लतिका अवलम्बन करिए मझ मने लागल धन्दा ॥ ४ ॥ केश पसारि यव तुहु अछाल उर पर अम्वर आधा । से सब सुमरि कान्हू भेल आकुल कहे धनि इथे कि समाधा ॥६॥ हसइते कब तुहु दशन देखायल करे कर जोरहि मोर ।। अलखित दिठि कब हृदय पसारलि पुनु होरि सखि कर कोर ॥८॥ एतह निदेश कहल तोहे सुन्दरि जानि तोहे कृरह बिधान ।। हृदयपुतलि तुहु से शुन कलेवर कवि विद्यापति भान ॥ १० ॥ दूती । ८३ जहि खने निअर गमन होय मोर । तहि खने कान्ह कुशाल पूछ मोर ॥२॥ मन ए वुझल तोहर अनुराग । पुन फले गुनमति पिआ मन जाग ॥ ४॥ पुनु पुछ पुनु पुछ मोर मुख हेरि । कहिलओ कहिनी कहविकत घेरि ॥६॥ आन बेरि अवसर चाल आन । अपने रभस कर कहिनी कान ॥८॥ लुबुधल भमरा कि देव उपाम । वाधल हरिण न छाड़ए ठाम ॥१०॥