पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । ठूती । १०१ यदि अवकास कइए नहि तोहि । कॉलागि ततए पठओलए मोहि ॥ २ ॥ तोहरा हृदय वचन नहि थीर । नलनी पात जइसन बह नीर ॥ ४ ॥ आवे कि कहब सखि कहइते अकाज। अथिरक मध्य भेल सम काज ॥ ६ ॥ आसा लागि सहत कत साठ । गरुअ न हो अमड़ाकाँ काठ ॥ ८॥ । तहे नागरि गुन रूपक गेह । अनुदिने बुझल कठिन तुअ नेह ॥१०॥ तन्हिको सतत तोहर परथाव । जनि निरधन मन कतएन धाव ॥१२॥ भनइ विद्यापति ई रस गाव । मगले कानट के नहि पाव ॥१४॥ ( १४) कानट=जीर्य थ ।। ठूती । १०२ सुन्दर मन्दिरे थिर न थाकयन दय कान । चीर चिकुर एक न सम्बर १ । । । न । रामा सवहु तोहर उदेश । विरहे आउल कन्हाई फिरय सपन कारन सयन बरई तु नयन मुदय मदन न देइ ५५