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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/६४

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विद्यापति ।।

5 । । दूती। | ११० माधव कि कहव से विपरीते। तनु भेल जर जर भाविनि अन्तर चित रहल तसे भीते ॥ २ ॥ निरस कमल मुख करे अवलम्बइ साखि माझे वैसाले गोइ ।। नयनक नीर थिर नहि बांधइ पङ्क कएल महि रोइ ॥ ४ ॥ मरमक बोल बयने नहि बोलत तनु भेल कुहु शाश खीना । ... - अवनि उपर धनि उठए न पारइ धयलि भुजा धरि दीना ॥ ६ ॥ तपत कनया जनि काजर भेल तनु अति भेल विरह हुतासे ।। कवि विद्यापति मने अभिलाषत कान्छ चलह तसे पासे ॥ ८॥ दूती । १११ लौटइ धनि धरनी धरि सोइ । खने खन शास खने खन रोइ ॥ २ ॥ खने खन मुरछई कंठ परान । इथि पर की गति दैवे से जान ॥ ४ ॥ ए हरि पेखलो से बर नारि । न जीवइ विनु कर परस तोहरि ॥ ६ ॥ केहो केहो जपय वेद दिठि जानि । केहो नवग्रह पुछ जोतिअ आनि ॥८॥ केहो केहो धरि धातु विचारि । विरह विखिन कोइ लखइ न पारि ॥१०॥ दूती । नयनक नीर चरन तल गेल । थलहुक कमल अम्भोरुह भेज ॥ २ ॥ अधर अरुण निमिष नहि होए । किसलय सिसिरे छाडि हलु धोए ॥ ४ ॥ सासमुखि नारे ओज नहि होए । तुअ अनुरागे शिथिल सब कोए ॥ ६ ॥ --