पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/६५

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विद्यापति । ५६ ठूती । ११३ अविरल नयन गरए जलधार । नब जल विन्दु सहए के पार ॥ २ ॥ कि कहब साजन ताहेर कहिनी । कहहि न पारिय देखलि जहिनीं ॥ १ ॥ कुच युग ऊपर आनन हेरु । चान्द राहु डरे चढ़ल सुमेरु ॥ ६ ॥ अनिल अनल बम मलयजबीख। जेओ छल शीतल से भेल तीख ॥ ८ ॥ चान्द सतावए सविताहु जानि । नहि जीवन एकमतभेलि तीनिं ।।१०॥ किछु उपचार मान नहि आन । ताहि बेग्राधि भेषज पञ्चबान ॥१२॥ तुम दरसन बिनु तिलान जीव । जइअ कलामति पीउख पीव ।।१४।। सखी से सखी । ११४ राहिक नविन प्रेम सुनि दुति मुखे मनहि उर्लसित कान । मनोरथ कतहि हृदये परिपूरल आनन्दे हरल गेयान ॥२॥ सजनि विहि कि पुरायव साधा । कत कत जनमक पुन फले मिलव सेहे गुनमति राधा ॥ ४ ॥ एत केहि माधव तोरित गमन करु पथ विपथनहि मान । सुन्दरि मन कर दूति वदन हार मनमथे जर जर मान ।। है । | ऐसन कुञ्ज मिलल नवनागर सखि गन सञजहाँ राए । दुहु दुहु बदन हेरि दुहु कुल विद्यापति कवि गार।