पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/७२

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विद्यापति । राधा । १२५ तुअ गुन गौरव सील सोभाव । सेहे लए चढिलिह तोहरी नाव ॥ २ ॥ हठन करिअ कन्ह कर मोहि पार । सव तह वड थिक पर उपकार ॥ ४ ॥ आइलि सखि सबै साथे हमार । से सवे भैलि निकहि बिधि पार ॥ ६ ॥ हमराभेलि कान्ह तोहरे आस । जे अगिरिअ तान होइअ उदास ॥ ८ ॥ भले मन्द जानि करिअ परिनाम । जस अपजस दूर रह गए ठाम ॥१०॥ हमे अबला कत कहव अनेक । आइति पड़ले बुझिअ बिबेक ॥१३॥ तोहे पर नागर हमे पर नारि । कॉप हृदय तुअ प्रकृति विचारि ॥१४॥ भनइ विद्यापति गावे । राजा सिवसिह रूपनराएन इ रस सकल से पावे ॥१६॥ राधा । १२६ नाव डोलाव अहीरे, जिवइते न पाच तीरे, खर नारे लो । । खेव न लेअए मोले, हसि हसि की दुह बोले, जिव डोले लो ॥ २ ॥ कके बिके ऐलिहु आपे, बेढिलहु मोहि बड़े सापे, मारे पापे लो । करितहुँ पर उपहासे, परािलहें तन्हि विधि फॉसे, नहि आसे लो ॥ ४ ॥ न वझसि अबुझ गोआरी, भजि रहु देव मुरारी, नहि गारी ली । कवि विद्यापति भाने, नृप सिवसिंह रस जाने, नर कान्हे लो ॥ ६ ॥