पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/७३

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विद्यापति । ६७ ।

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ठूतो। १२६ प्रथमाह सुन्दरि कुटिल कटाख । जिव जोखे नागर दे दस लाख ॥ २ ॥ के दे हास सुधा सम नीक । जइसन परहॉक तइसन वीक ॥ ४ ॥ सुन सुन्दर हे नव मदन पसार । जनु गोपह आओब बनिजार ॥ ६ ॥ रोस द्रसि रस राखब गोए । धयले रतने अधिक मूल होए ।।८।। भलहि न हृदय बुझाओव नाह । आरति गाहक महग बेसाह ॥१०॥ भनइ विद्यापति सुनह सयानि । सुहित वचन राखब हिय अनि ॥१२॥ (४) परहोक= चाहनि, जे प्रथम बेचा जाता है। दूती ।। प्रथमहि अलक तिलक लेव साजि । चञ्चल लोचन काजरे ऑजि ॥ २ ॥ जाएब वसने आङ्ग लेव गोए । दूरहि रहव तें अथित होए ॥ ४ ॥ मोरे बोले सजनी रहव लजाए । कुटिल नयने देव मदन अगाए ।। ६ ।। झॉपब कुच दरसाग्रोव कन्त । दृढ कए वॉधच निबिहुक अन्त॥ ६॥ मान कइए किछ दूरसव भाव । रस राखब ते पनु पन व ॥१०॥ हमे कि सिखउविहे अोर से रङ्ग । अपनहि गुरुभए कहत अनङ्ग ॥१२॥ भनइ विद्यापति इ रस गाव । नागर कामिनि भाव वुझाव ॥१४॥ - - -