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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/७९

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विद्यापति । दूती । १४ १ शुन शुन सुन्दर कन्हाइ । तोहे सोपल धनि राइ ॥ २ ॥ कमालिनि कोमल कलेवर । तुहुँ से भूखल मधुकर ।। ४ ।। सहजे करवि मधुपान । भूलह जनि पोचबान ॥ ६ ॥ पराधि पयोधर परशिह । कुञ्जर जन सरोरुह ॥ ८॥ गनइते मोतिम हारा । छले परशबि कुच भारा ॥ १०॥ न बुझए रति रस रङ्ग । खने अनुमति खने भङ्ग ॥१३॥ सिरीस कुसुम जिनि तनु । थोरि सहबि फुलधनु ॥१४॥ विद्यापति कवि गाव । दृतिक मिनति तुय पाव ।।१६।। दूती । १४२ चार विलासिनि जतने आनलि रमन करव राखि । जैसे मधुकर कुसुम न तोल मधु पिव मुख मााखे ॥ २ ॥ माधव करब तेसनि मेरा । बिनु हकारे तुअ निकेतन आवए दोसर वेरा ॥ ४ ॥ सिरिस कुरुसम कोमल ओ धनि तेहिहु कोमल कान्ह । इङ्गित उपर केलि जे करव जे न पराभव जान ॥ ६ ।। दिने दिने दूने पेम बढाब जैसे वाढसि सुससी । कौतुकहु किछु बाम न बोलच निअर जाउवि हसी ॥ ८ ॥ (४) हफार=बुलाना । 10