पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/८१

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विद्यापति । ७५ दूती । १४५ सहजहि तनु खिनि माझ बेचि सनि सिरिसि कुसुम सम काया । तोहे मधुरिपुपति कैसे कए धरति रति अपरुब मनमथ भाया ॥२॥ माधव परिहर दृढ़ परिरम्भा । भॉगि जाएत मन जीव सने मदन विटपि आरम्भा ॥ ४ ॥ सैसव अछल से डरे पलाएल जौवन नूतन वासी। कामिनि कोमल पाहुन पचसर भए जनु जाह उदासी ॥ ६ ॥ तोहर चतुरपन जखने धरति मन रस बूझति अवसैखि । एखने अलप बुधि न बुझ अधिक सुधि केलि करव जिव राखि ॥ ८॥ तोहे जे नागर मानो धनि जिव सनि कोमल कॉच सरीरा । ते परि करव केलि जे पुनु होअ मेलि मूल राख बनिजारा ॥१०॥ हमरि अइसन मति मन ए सुन दुति दुर कर सबै अनुतापे । जो अति कोमल तैअग्रो न ढोर पल कबहु भमर भरे कापे ॥१२॥ दूती। प्रथम समागम भूखल अनङ्ग । धनि वल जानि करब रतिरंग ॥ २ ॥ हठ नहि करके आइति पाए । भूखल नहि दुहु कोरे खाए ॥ ४ ॥ चेतन कान्ह तहहि यदि थि । के नहि जान महते नवे हाथि ॥ ६ ॥ तुय गुन गन कहि कत अनुवोधि । पहिलहि सवहि हलाल परबोधि ॥ ८ ॥ हठ नहि करबे रति परिपाटि । कोमल कामिनि बिघटति साटि ॥१०॥ जावे रभस सह तावे विलास । बिपति बुझिअजोनजाएब पास ॥१२॥ धसि परिहरि नहिं धरविए वाहु । उगिलल चन्द गिलय जन राहु ॥१४॥ भनइ विद्यापति कोमल कॉति । कौशल सिरिस सुम अल भॉति ॥१६॥