पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/९

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विद्यापति ।। - -- ठूती । | १२ पीन पयोधर टूवरि गता । मेरु उपजल कनक लता ॥ २ ॥ | ए कान्ह ए कान्ह तोरि दोहाई । अति अपुरुव देखलि साई ॥ ४ ॥ | मुख मनोहर अधर रङ्गे । फूललि मधुरि कमल सड़े ॥ ६ ॥ लोचन जुगल शृङ्ग अकारे । मधुक मातल उडुए न पारे ॥ ८ ॥ भऊहेरि कथा पूछह जनू । मदने जोड़लि काजर धनू ॥१०॥ भने विद्यापति दूति वचने । एत सुनि कीन्ह करु गमने ॥१२॥ | ( १ ) दूवरि=क्षीणा ( तन्वी ) | ( २ ) गता • गात्र । ( मानी कि कनकलता में भेद उत्पन्न हुआ अर्थात् शरीर क्षीण परन्तु पर्याधर पूर्ण) | ( ४ ) साई=उसके । (६) मधुरि = वन्धूलिपुष्प । (१) जनू= नहीं। ठूती । जेहे अवयव पुरुच समय निचर बिनु विकार ।। से आवे जाहु ताहु देखि झोपए चिन्हिम न वेवहार ॥ २ ॥ कन्हा तुरित शुनसि आए । रूप देखते नयन भुलल सरूप तोर दोहाए ॥ ४ ॥ सैसव वापु बहीरि फेदाएल जौवने गहल पास । जेओ किछु धनि बिरुह बोलए से सेओ सुधा सम भास ॥ ६ ॥ जौवन सैसव खेदए लागल छाड़ि देहे मोर ठाम । एत दिन रस तोहे बिरसल अबहु नहि विराम ॥ ८ ॥ ( १ ) निचर= निश्चल। (२) चिन्हिम= मैं नहीं चीन्हती (जानती )। ( ३ ) शुनसि आए=आकर सुने । (५ ) धापु=बिचारा । फेदापल-खेद दिया। (६) चिरह=विरोध, क्रोध वाक्य । (८) विरसल=रस लेकर नीरस कर दिया।