पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/९५

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विद्यापति ।। ८६. ••••••••• •••••• •• • राधा। १७३ बुझल मोहे हरि बहुत अकार । हिया मौरधसधसतुह से गोर ॥२॥ धिरे धिरे रमह टुटय जनु हार । चार रभस नहि कर परचार ॥४॥ न दिह कुचे नख रेख घात । कइसे नुकायव काल परभात ॥६॥ न कर विघातन अधरहि दशने । लाज भय दुहु नहि तुय थान ॥८॥ न धर केश न कर ढिठ पन । अलपे अलपे करह निधुवन ॥१०॥ तोहे सोंपल तनु जनमक मत । अलपे समधान आजु अभिमत ॥१२॥ नागरि सुन कह कविकण्ठहार । विन्धल कुसुम सर नहि से विचार ॥१४॥ माधव । १७४ एक आ अनलहुं न आवए पासे । कोरहु करइते कॉप तरासे ॥२॥ नहि नहि नहि पए भाखे । जइक्रो जतने करिअपए लाखे ॥४॥ | सुमुखि विमुखि रह सोइ । पये परलहु नहि परसनि होइ ॥६॥ । सेज चकित रह जागी । छटपट करजनि परसाल आगी ॥८॥ 19