पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/९७

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विद्यापति । ६.१ सखी । ១ ២២ आएल माधव पाशाल थाम । सम्भ्रम जागल मनमथ धाम ॥२॥ धनि मुख ढाकि रहल एक पास । चादर तर शशि रहल तरास ॥४॥ चलु सब सखिजन इङ्गित जानि । करतल नाह धरल धनि पानि ॥६॥ रूठे वलय किये झन झन बाज । वाला किछुइ न कह भय लाज ॥८॥ कत कत सखिजन करय उपाइ । धनि मुख चान्द कबहुन देखाइ॥१०॥ रति रस पण्डित नागर रंग । चापि धरल धनि वेणी भुजग ॥१२॥ दाहिन हाथ चिबुक गहि राख । सम्भ्रमे बदन इन्दु रस चाख ॥१४॥ नयन चकोर अमिय रस पीव । अपुरुब दुहुक जिउ तब जीव ॥१६॥ भुज धरि आनल कुसुम शयान । जनम सफल मानल मॅचबान ।।१८॥ सघने आलिंगन निभय केलि । वल्लभ विदगध साफल भेल ॥२०॥ सखी । १७८ हरि करे हरिणनयनि तब सोपि सखिगण चलु आन ठामे । अवसरे धनि कर धरि नागर विनति करय अनुपामे ॥२॥ हरिणनयनि धनि रामा । कानुक सरस परश सम्भापणे मेटउ लाजक धामी ॥४॥ सुखद सेजोपर नागरि नागर वैसल नव रति साधे । प्रति अङ्ग चुम्बने रस अनुमोदने थर थर कॉपय राधे ॥६॥ मदन सिंहासन करल थारोहण मोहन रसिक सुजान । भय गढ़ तोडल अलपे समाधल राखल सकन समान ॥८॥ कह कविशेखर गरुय भोख भर कर जल थोर अहारे । ऐसन दुहु मन तलपइ पुन पुन उपजल अधिक विकारे ॥१०॥