पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/९९

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विद्यापति । »»»»

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- v | ••••••••• ••*--- ठूती । १८१ ग्रावे न लहति आइति मोरि । परे परतख लखविं चार ॥२॥ चेरा एक जीव राख कन्हाई । परक पेस देह पठाइ ।।४।। चुम्बने लेपि काजर धार । अधर निसि जे तोरलह हार ॥६॥ नखर खत कुचजुग लागु । से कइसे होइति गुरुजन शागु ॥८॥ भने विद्यापति रस सिङ्गार । सङ्केत ग्राहाल तेजए के पार ॥१०॥ दूती । १८२ हृदय तोहर जानि न भेला । परक रतन अनि मौजे देला ॥२॥ कएल माधव हमे अकाज । हाथि मेराउलि सिंह समाज ॥४॥ राखह माधव मोरि विनती । देहे परीहरि परजुवती ॥६ चुम्वने नयन काजर गेला । दसने अधर खण्डित भेला ॥८॥ पीन पयोधर नखर मन्दा । जनि महेसर शिखर चन्दा ॥१०॥ न मुख वचन न चित थीरे । कॉप धन हन सवे सरीरे ॥१२॥ घर गुरुजन दुरजन सङ्का । न गुनह माधव मोहि कलङ्की ॥१४॥ कवि विद्यापति भान । निक वेदन नइ बुझान ॥१६॥