पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१००

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१०१ विनय-पत्रिका सबके रक्षक, सबको मृत्युरूपसे भक्षण करनेवाले यमराजके स्वामी, कूटस्थ, गूढ़ तेजवाले और भक्तोंपर कृपा करनेवाले हैं ॥ ६ ॥ आप ही सिद्ध, साधक और साध्य है, आप ही वाच्य और वाचक हैं । आप ही मन्त्र, जापक और जाप्य तया आप ही सृष्टि और आप ही सटा हैं, आप परम कारण है । आपकी नाभिसे कमल निकला है। आपका शरीर मेघके समान श्यामसुन्दर है । सगुण-निर्गुण दोनों ही आप हैं, यह समस्त दृश्यरूप संसार भी आप हैं और उसके द्रष्टा भी आप ही हैं ॥ ७ ॥ आप आकाशके समान सर्वव्यापी, रागरहित, ब्रह्म और वर देनेवाले देवताओं के स्वामी हैं । आपका नाम चैकुण्ठ और विमल वामन ब्रह्मचारी है । सिद्ध और देवसमूह सदा आपकी वन्दना किया करते हैं, आप 'पाखण्डका खण्डन कर उसे निर्मूल करनेवाले हैं ॥ ८ ॥ आप पूर्ण आनन्दकी राशि, अविवेक, अज्ञान और सत्त्व, रज, तम गुणोंके त्रिदोषको हरने- वाले हैं । यह तुलसीदास वचन, मन और कर्मसे आपकी शरण पड़ा है, इसके भव-भयरूपी समुद्रके सोखनेके लिये आप ही साक्षात् अगस्त्य ऋषिके समान हैं ।। ९॥ [५४] विश्व-विख्यात, विश्वेश विश्वायतन, विश्वमरजाद, व्यालारिगामी ब्रह्म, वरदेश, वागीश, व्यापक, विमल विपुल, बलवान निर्वान- स्वामी ॥१॥ प्रकृति, महतत्व, शब्दादि गुण, देवता व्योमा मरुदग्नि, अमलांबु, उर्वी।