पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/११६

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विनय-पत्रिका पुण्य वन शैलसरि बद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रूपं। सिद्ध-योगींद्र-बूंदारकानंदप्रद, भद्रदायक दरस अति अनूपं ॥५॥ मान मनभंग, चितभंग मद, क्रोध लोभादि पर्वतदुर्ग, भुवन-भर्त्ता द्वेष-मत्सर-रागप्रबल प्रत्यूह प्रति, भूरिनिर्दय, क्रूर कर्मकर्ता ॥६॥ 'विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा, तीव्र दर्प कंदर्प खर खड़गधारा। धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक, तत्र के वराका वयं विगतसारा ॥७॥ परम दुर्घट पथं खल-असंगत साथ, नाथ ! नहिं हाथ वर विरति- यष्टी। दर्शनारत दास, त्रसित माया पाश, त्राहि हरि, त्राहि हरि दास कष्टी ॥८॥ दासतुलसी दीन धर्म-संबलहीन, श्रमित अति खेद, मति मोह नाशी। देहि अवलंबन विलंब अंभोज-कर, चक्रधर-तेजवलशर्मराशी॥९॥ भावार्थ-मैं उन श्रीनर-नारायणको नमस्कार करता हूँ, जो करुणाके स्थान, ध्यानके परायण और ज्ञानके कारण हैं । जो समस्त संसारका उपकार करनेवाले, दयापूर्ण हृदयवाले, तपस्यामें लगे हुए और शरणागत भक्तोंपर कृपा करनेवाले हैं ॥१॥ जिनके शरीरकी कान्ति नवीन-नील कमलोंकी मालाके समान है । जिनका सौन्दर्य करोड़ों कामदेवोंके सदृश और प्रकाश अगणित सूर्योंके समान है। नव-विकसित सुन्दर कमलोंके समान जिनके मनोहर नेत्र हैं, चन्द्रमा- के समान सुन्दर मुख है और चन्द्रमाकी किरणोंके समान जिनकी मन्द मुसकान है ॥ २॥ जो समस्त सुन्दरताके भण्डार अनेक दिव्य गुणोंके स्थान और ब्रह्मा, वेद, विद्वान् और शिवजीके द्वारा सेवित