पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१२९

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विनय-पत्रिका १३. - पपीहेका प्रेम अधिकाधिक बढ़ता है (तत्र उमे यानीकी बूंद मिनाद) ॥३॥ इसी प्रकार ( भगवान् की टयामे परीक्षाकटिये कामेही सकट आकर तुझे विचलित करनेकी चेटा क्यों न करें)वली(अनन्य मनसे) श्रीरामनामकी ही शरण ग्रहण कर, राम-नागमें ही बुदि लगा, राम- नामका ही प्रेमी बन । ऐसे रामनामके आश्रित जिनने भक्तोगये है, अभी हैं और जो आगे होंगे, त्रिलोकीम उन्हींको बा भाग्यमान समझना चाहिये ॥४॥ यह (राम-नाम, अनन्य प्रेम करनेका ) एकाही मार्ग बड़ा ही कठिन है, यदि तू इस मार्गपर चला जाय तो क्षण-क्षणमें ( सांसारिक सुखोंकी ) छाया लेनेके लिये ठहरकर देर न करना हे तुलसीदास ! तेरा भला तो अपनी ओरसे श्रीरामनाममे निरुपाधि अर्थात् निष्कपट प्रेमके निवाहनेसे ही होगा ॥५॥ [६६] राम जपु, राम जपु, राम जपु यावरे । घोर भव नीर-निधि नाम निज नाच रे ॥१॥ एक ही साधन सब रिद्धि-सिद्धि साधि रे। ग्रसे कलिरोग जोग-संजम-समाधि रे॥२॥ भलो जो है, पोच जो है, दाहिनो जो, वाम रे। राम-नाम ही सो अंत सय ही को काम रे ॥३॥ जग नभ-बाटिका रही है फलि फूलि रे। धुवाँ कैसे धौरहर देसि तू न भूलि रे ॥४॥ राम-नाम छाडि जो भरोलो करें और रे। तुलसी परोसो त्यागि माँग कूर कौर रे ॥५॥ भावार्थ-अरे पागल ! राम जप, राम जप, राम जप, इस भयानक