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विनय-पत्रिका
भावार्थ-हे जीव ! सदा अनन्यप्रेममे श्रीरामनाम जपा कर, इस
कलिकालमें रामनामके सिवा वैराग्य, योग, यज्ञ, तप और दानसे कुछ
भी नहीं हो सकता ॥ १ ॥ शाखोंमें विधि-निषेधरूपमे कर्म बनलाये
हैं, मेरी सम्मतिमें श्रीरामनामका स्मरण करना ही सारी विधियों में -
राज-विधि है और श्रीरामनामको मूल जाना ही सबसे बढ़कर निसिद्ध
कर्म है ॥ २॥ राम-नाम महामणि है और यह जगत्का जाल साँप
है। जैसे मणि ले लेनेसे साँप व्याकुल होकर मर-सा जाता है, इसी
प्रकार रामनामरूपी मणि ले लेनेसे दु.खरूप जगत्-जाल आप ही
नष्टप्राय हो जायगा ॥ ३ ॥ अरे ! यह राम-नाम कल्पवृक्ष है, यह
अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फल देता है, इस बातको वेद, पुराण,
पण्डित और शिवजी महाराज भी कहते हैं॥४॥ श्रीराम-नाम प्रेम
और परमार्थ अर्यात् भक्ति-मुक्ति दोनोंका सार है और यह रामनाम
इस तुलसीदासके तो जीवनका आधार ही है ॥ ५॥
[६८ ]
राम राम राम जीह जौलौं तू न जपिहै।
तौलों, तू कहूँ जाय, तिहें ताप तपिहै ॥ १ ॥
सुरसरि-तीर चिनु नीर दुख पाइहै।
सुरतरु तरे तोहि दारिद सताइहै ॥ २॥
जागत, बागत, सपने न सुख सोइहै।
जनम जनम, जुग जुग जग रोइहै ॥ ३॥
छुटिवेके जतन विसेप बॉधो जायगो।
है विष भोजन जो सुधा-सानि खायगो॥ ४ ॥.
तुलसी तिलोक, तिहूँ काल तोसे दीनको।
रामनाम ही की गति जैसे जल मीनको ॥ ५॥
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१३१
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