१३४ विनय-पत्रिका भावार्थ-हे जीव ! सदा अनन्यप्रेममे श्रीरामनाम जपा कर, इस कलिकालमें रामनामके सिवा वैराग्य, योग, यज्ञ, तप और दानसे कुछ भी नहीं हो सकता ॥ १ ॥ शाखोंमें विधि-निषेधरूपमे कर्म बनलाये हैं, मेरी सम्मतिमें श्रीरामनामका स्मरण करना ही सारी विधियों में - राज-विधि है और श्रीरामनामको मूल जाना ही सबसे बढ़कर निसिद्ध कर्म है ॥ २॥ राम-नाम महामणि है और यह जगत्का जाल साँप है। जैसे मणि ले लेनेसे साँप व्याकुल होकर मर-सा जाता है, इसी प्रकार रामनामरूपी मणि ले लेनेसे दु.खरूप जगत्-जाल आप ही नष्टप्राय हो जायगा ॥ ३ ॥ अरे ! यह राम-नाम कल्पवृक्ष है, यह अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फल देता है, इस बातको वेद, पुराण, पण्डित और शिवजी महाराज भी कहते हैं॥४॥ श्रीराम-नाम प्रेम और परमार्थ अर्यात् भक्ति-मुक्ति दोनोंका सार है और यह रामनाम इस तुलसीदासके तो जीवनका आधार ही है ॥ ५॥ [६८ ] राम राम राम जीह जौलौं तू न जपिहै। तौलों, तू कहूँ जाय, तिहें ताप तपिहै ॥ १ ॥ सुरसरि-तीर चिनु नीर दुख पाइहै। सुरतरु तरे तोहि दारिद सताइहै ॥ २॥ जागत, बागत, सपने न सुख सोइहै। जनम जनम, जुग जुग जग रोइहै ॥ ३॥ छुटिवेके जतन विसेप बॉधो जायगो। है विष भोजन जो सुधा-सानि खायगो॥ ४ ॥. तुलसी तिलोक, तिहूँ काल तोसे दीनको। रामनाम ही की गति जैसे जल मीनको ॥ ५॥
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