पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१४६

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१४९ विनय-पत्रिका तो तू पाप-पुञ्जोंका नाश करनेवाला है ॥ १॥ तू अनाथोंका नाथ है तो मुझ जैसा अनाथ भी और कौन है ? मेरे समान कोई दुखी नहीं है और तेरे समान कोई दुःखोंको हरनेवाला नहीं है ॥२॥ तूब्रह्म है, मैं जीव हूँ। तू खामी है, मैं सेवक हूँ। अधिक क्या, मेरा तो माता, पिता, गुरु, मित्र और सब प्रकारसे हितकारी तू ही है ॥३॥ मेरे-तेरे अनेक नाते हैं, नाता तुझे जो अच्छा लगे, वही मान ले। परन्तु बात यह है कि हे कृपालु । किसी भी तरह यह तुलसीदास तेरे चरणोंकी शरण पा जावे ॥ ४॥ [८०] और काहि माँगिये, को माँगियो निवारै। अभिमतदातार कौन, दुख-दरिद्र दारै ॥ १॥ धरमधाम राम काम-कोटि-रूप रूरो। साहब सब विधि सुजान, दान खडग-सूरो ॥२॥ सुसमय दिन द्वै निसान सबके द्वार वाजै । कुलमय दसरथके!दानि तैगरीव निवाजै ॥३॥ सेवा बिनु गुनविहीन दीनता सुनाये। जे जे ते निहाल किये फूले फिरत पाये ॥४॥ तुलसिदास जाचक-रुचि जानि दान दीजै। रामचंद्र चंद्र तू, चकोर मोहिं कीजै ॥ ५॥ भावार्थ-हे प्रभो ! अब और किसके आगे हाथ फैलाऊँ ? ऐसा दूसरा कौन है जो सदाके लिये मेरा मॉगना मिटा दे ? दूसरा ऐसा कौन मनोवाञ्छित फलोंका देनेवाला है जो मेरे दुःख-दारिद्रयका नाश