पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१४५

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विनय-पत्रिका तीनों काल सर्वत्र यही प्रसिद्ध है और यही चारों वेद कह रहे हैं कि आदि, मध्य और अन्तमें हे रामजी! सदा आपकी ही एक-सी प्रभुता है ॥३॥ जिस भिखमगेने आपसे मॉग लिया, वह फिर कभी भिखारी नहीं कहलाया। (वह तो परम नित्य सुखको प्राप्त कर सदाके लिये तृप्त और अकाम हो गया) आपके इसी खभाव-शीलका सुन्दर यश सुनकर यह दास आपसे भीख माँगने आया है॥ ४॥ आपने पाषाण (अहल्या), पशु (बंदर-भालू), वृक्ष (यमलार्जुन ) और पक्षी ( जटायु, काक- भुशुण्डि ) तकको अपना लिया है । हे महाराज दशरथके पुत्र ! आपने नीच रकोंको राजा बना दिया है ॥ ५॥ आप गरीबोंको निहाल करनेवाले हैं और मैं आपका गरीब गुलाम हूँ। हे कृपालु ! ( इसी नाते ) एक बार यही कह दीजिये कि 'तुलसीदास मेरा है ॥६॥ [७९] देव- तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी । ही प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी ॥१॥ नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो। मो समान आरत नहिं आरतिहर तोसो ॥२॥ ब्रह्म तू, हाँ जीव, तू है ठाकुर, ही चेरो। तात-मातु, गुरु-सखा तू सव विधि हितु मेरो ॥३॥ तोहि मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै । ज्यो त्यो तुलसी कृपालु ! चरन-सरन पावै ॥४॥ । भावार्थ-हे नाथ ! तू दीनोंपर दया करनेवाला है, तो मैं दीन हूँ। तू अतुलदानी है, तो मैं भिखमंगा हूँ। मैं प्रसिद्ध पापी हूँ,